अष्टांग योग साधना का अर्थ 🧘‍♂️🕉️। Meaning of Ashtanga Yoga in Hindi

अष्टांग योग /Ashtanga yoga

जिस योग साधना के आठ अंग होते हैं, वहीं ashtanga yoga कहलाता है। सभी अनुभवी योगाचारयों ने अष्टांग योग को ही सबसे श्रेष्ठ माना है, वह आठो अंग कुछ इस प्रकार हैं -
1). यम
2). नियम
3). आसन
4). प्रााणायाम
5). प्रत्याहार
6). धारणा
7). ध्यान
8). समाधि
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Ashtanga yoga for beginners

योग मार्ग में सभी अंगों(steps) को सिद्ध करते हुए समाधि तक जाते हैं अंगो के बारे में नीचे विस्तार से दिया गया है आइए इन्हीं अंगों के बारे में विस्तार से समझते है -

यम 

महर्षि पतंजलि ने यम को सार्वभौमिक(universal) मानकर कहा है ' जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना: सार्वभौमिक महव्रतं' मतलब  जाति, देश , काल और परिस्थिति में ना बंधकर पालन करना सार्वभौमिक(universal) महाव्रत है। इस कथन का यही अर्थ है कि सबसे पहले साधक को यमो के द्वारा अपने व्यावहारिक जीवन को स्वच्छ बनाने का प्रयत्न करना चाहिए, जिससे साधक के जीवन के कर्म का बंधन नष्ट हो जाए। 
अहिंसा सत्यमस्तेयें ब्रह्मचर्य क्षमा वृतिः।
दयार्जवं मिताहार: शौच चैव यमा दश ।।१

अर्थात् - यम के दस प्रकार हैं 

1) अहिंसा
2) सत्य
3) अस्तेय
4) ब्रह्मचर्य
5) क्षमा
6) क्षुति
7) दया
8) आजव
9) मिताहार
10) शौच
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नियम

नियमों का संबंध भी मनुष्य के आचरण से ही है, इनका पालन करने से उसे जो सुख शांति मिलती है, वह उनकी कमी से कभी नहीं मिल सकती। नियमों का पालन ना करके कोई साधक यह सोचे कि वह सिद्धि प्राप्त कर लेगा, तो यह उसकी सबसे बड़ी भूल होगी।
नियम कोई साधारण क्रिया नहीं है, बल्कि साधक की वह दिनचर्या है जो उसे सर्वोच्च लक्ष्य की सिद्धि की प्राप्ति में सहायक है। क्योंकि नियम पालन से शरीर के राजसी - तामसी आदतों का नाश होकर चित्त शुद्ध हो जाता है।

आसन /Asana

साधकों की सुविधा - असुविधा की दृष्टी से योगाचार्यों ने कुल  आसनों में से 84 आसनों को छांठ कर सरल माने।  "प्रयत्न शैल्यिऻनन्तसमापत्तिभ्याम" मतलब आसनों की सिद्धि प्रयत्न की कोमलता और परमात्मा में मन लगाने से हो सकती है। ( इस विषय पर आपको पहले भी बता चुका हूं, तो यहां बताने का कोई मतलब नहीं) ।
अष्टांगो में आसन की महत्वत्ता इसलिए भी बहुत है क्योंकि इसके बाद प्राणायाम करने से प्राण वायु सरलता से पूरे शरीर में गमन करती है, जिसके कारण शरीर अत्यधिक स्वस्थ हो जाता है जोकि तपस्या काल में आपकी अनेकों शारीरिक पीड़ाओं से रक्षा होती है। 
आसनों का अभ्यास होने पर प्राणायाम के अभ्यास में सरलता होती है। क्योंकि आसन सिद्ध होने पर साधक को गर्मी - सर्दी आदि की पीड़ा नहीं होती और साधना के लिए एकचित्त होकर बिना थके बैठने के लिए शरीर पुष्ट हो जाता है। तो आइए हमने आसनों के कुछ उदाहरण नीचे दिए हुए हैं, आप चाहें तो इनके बारे में नीचे दी गई लिंक पर टच करके पढ़ सकते हैं -

आसनों के कुछ उदाहरण निम्नलिखित हैं -
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प्राणायाम / Pranayama

 अब आसन आप सिद्ध कर ही चुके हैं तो समाधि की और आपकी ये अगली सीढ़ी है। आसनों के बाद प्राणायाम के अभ्यास में किसी प्रकार की परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता। इसलिए आसन के स्थिर होने पर श्वास - प्रश्वास(inhale and exhale) की गति को साधना ही प्राणायाम होता है।

प्राणायाम का गुणगान स्वयं योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण जी ने कहा है की, संसार का सबसे श्रेष्ठ यज्ञ "प्राणायाम" है। जिसमें  हम श्वांस ही आहुति का रूप हैं। यही यज्ञ किसी भी साधारण मनुष्य को असाधारण क्षमता प्रदान करता है। इस यज्ञ को अगर आप सिद्ध करलें अर्थात आप अपने प्राणों को अपने वश ने करलें तो श्रृष्टि की कोई भी शक्ति आपको अपने वहां में नहीं कर सकती। 

प्राणायाम के अभ्यास से आपका आभामंडल इतना तेजोमय हो जाता है की नकारात्मक शक्तियां आपको दूर से ही नमन करके अपना रास्ता बदल लेती हैं।

 ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिए भी पहले प्राणायाम को ही सिद्ध करना आवश्यक होता है। तभी आपकी क्षमता इतनी बढ़ पाती है की आप श्रेष्ठ से श्रेष्ठ गुणों तथा तत्व ज्ञान को धारण कर सकते हैं।

प्राणायाम के अभ्यास से ज्ञान पर पड़े हुए अज्ञान के पर्दे का विनाश हो जाता है।

प्रत्याहार / Pratyahara

प्राणायाम के बाद प्रत्याहार करना आवश्यक होता है। कर्म को निष्कर्म भाव से करना भी प्रत्याहार है, अपने सभी कर्मो को ईश्वर को समर्पित करना भी प्रत्याहार है। इन्द्रियों को अपने अपने विषय से हटाकर चित्त के स्वरूप में तदाकार हो जाना भी प्रत्याहार है। इसके अभ्यास से इन्द्रियों पर विजय प्राप्त होती है और साधक का कर्मो से बंधन नष्ट हो जाता है अथवा वह पाप मुक्त हो जाता है। इसके बाद धारणा और ध्यान की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है।
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धारणा / Dharana

धारणा पांच प्रकार की होती हैं। मानव शरीर के 5 प्रमुख तत्व पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि व आकाश , इन्ही तत्वों को धारणा व प्रत्याहार से सिद्ध किया जाता है। धारणा से साधक को मृत्यु का भय नहीं रहता और वह ब्रह्म प्रलय होने पर भी दुखी नहीं होता। धारणा का अभ्यास यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार की सिद्धि होने प्र सरलता दृढ़ हो सकता है।
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पृथ्वी की धारणा

पावों से घुटनों तक पृथ्वी तत्व का स्थान कहलाता है। पृथ्वी चार कोण वाली, पीत वर्ण की ' ल ' अक्षर युक्त होती है। पृथ्वी तत्व में वायु का आरोप( एक के ऊपर दूसरे की कल्पना) करके उसमे ' ल ' को युक्त करें और फिर उसमे स्वर्ण वर्ण वाले चतुर्भुज एवं चतुर्मुख ब्रह्म का ध्यान करें। पांच घड़ी तक ध्यान करने से पृथ्वी तत्व सिद्ध हो जाता है और तब पृथ्वी तत्व के प्रभाव से उस योगी की मृत्यु नहीं हो सकती।

जल की धारणा

घुटनों से गुदा(anus) तक जल तत्व का स्थान कहा जाता है।यह अर्धचंद्र के रूप में 'व' बीज वाला होता है। इसमें वायु का आरोप करके 'व' को मिलाए और चतुर्भुज, किरीटधरी, शुद्ध स्फटिक के वर्ण वाले पीताम्बर धारी अच्युत देव विष्णु का ध्यान करें। इस प्रकार पांच घड़ी ध्यान करने से सभी पापो से मुक्ति मिलती है और साधक को जल से कभी भय नहीं रहता और उसकी कभी जल में डूबकर मृत्यु नहीं हो सकती।

अग्नि की धारणा

गुदा(anus) से हृदय तक अग्नि तत्व का स्थान माना जाता है।अग्नि त्रिकोण, लाल वर्ण और 'र'  अक्षर से समन्वित होता है। अग्नि में वायु का आरोप करके , उसके 'र ' अक्षर को युक्त करके त्रिनेत्र वाले, सूर्य समान आभा, और सभी अंगों में भस्म लगाए हुए भगवान रुद्र का ध्यान करें। पांच घड़ी ध्यान लगाने से अग्नि तत्व सिद्ध होता है और साधक कभी अग्नि से नहीं जलता, चाहे वह अग्निकुंड में ही क्यूं ना प्रवेश करले।

वायु की धारणा

हृदय से भौंहों(eyebrows) के मध्य तक वायु का स्थान खा जाता है। यह छ: कोण के आकार वाला, कृष्ण वर्ण और ' म ' अक्षर से संबंधित है। मरूत स्थान में 'य ' अक्षर को युक्त करके विश्वतोमुख सर्वज्ञ ईश्वर का ध्यान करें। पांच घड़ी तक इस प्रकार ध्यान लगाने से वायु तत्व सिद्ध होता है और वायु के समान आकाश गमन का सामर्थ्य प्राप्त होता है और वायु का भय नहीं रहता वात रोग से कभी मृत्यु नहीं होती

आकाश की धारणा

भौंहों के मध्य से भूधन्ति( सर के ऊपर तक) आकाश तत्व का स्थान कहा गया है।आकाश वृत्ताकार, धूम्र वर्ण का और 'ह ' अक्षर में प्रकाशित है। उस आकाश तत्व में वायु का आरोप करके और ' ह ' अक्षर जोड़कर बिंदु रूप महादेव एवं व्योमकार अर्थात् व्यापक सदाशिव का ध्यान करें। सदा शिव शुद्ध स्फटिक के वर्ण वाले, मस्तक पर बालचंद्र को धारण किए, पंकमुखी, सौम्य, दशभुजी, त्रिनेत्र एवं सभी कारणों के कारण । आकाश में उनकी धारणा करने से आकाश गमन का सामर्थ्य अवश्य ही प्राप्त होगा ।

ध्यान / Meditation

ध्यान क्या है ? ' जहां चित्त को ठहराया जाए वृत्ति का उसी में एक जैसा बने रहना ही ध्यान है।' मतलब चित्त की वृत्ति किसी एक ध्येय में समान रूप से लगी रहे और कोई दूसरी वृत्ति बीच में ना आए, इसी प्रक्रिया को ध्यान कहते हैं।
धारणा में भी ध्यान होता है परन्तु ध्यान में धारणा की तुलना में अधिक समय तक चित्त को एकाग्र रूप से लगाए रखने का प्रयास करते हैं। धारणा में 5 घड़ी तक ध्येय में चित्त की ऐकाग्रता रहती है, जबकि ध्यान में 60 घड़ी(24 घंटे) तक चित्त को स्थिर रखा जाता है।
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(ध्यान के 2 तरीके)
ध्यान के 2 भेद हैं सगुण और निर्गुण ध्यान। सगुण ध्यान में अपने इष्ट का ध्यान लगाते हैं और निर्गुण ध्यान में निराकार ब्रह्म का ध्यान लगाया जाता है।
(ध्यान के तीन प्रकार)
ध्यान के तीन प्रकार होते है - स्थूल ध्यान, ज्योति ध्यान और सूक्ष्म ध्यान।

१) स्थूल ध्यान

स्थूल ध्यान में आप अपने ईष्ट का ध्यान लगा सकते है यह सगुण ध्यान है

२). ज्योति ध्यान

इस ध्यान में ओंकार रूपी जीव का ध्यान बताया गया है। अंगुष्ठ मात्र परिणाम वाला जो पुरुष अंतरात्मा रूप से मनुष्यो के हृदय में सदा निवास करता है, वहीं पवित्र हृदय और मन वाला है, ध्यान के द्वारा उसके दर्शन किए जा सकत हैं और और उसे जान लेने प्र अमृतत्व की प्राप्ति होती है।

३).  सूक्ष्म ध्यान

सूक्ष्म ध्यान ही ध्यान की अंतिम अवस्था है , इस अवस्था के प्राप्त होने पर ही समाधि सिद्ध होती है। शांम्भवी मुद्रा का अभ्यास करता हुआ योगी कुण्डलिनी का ध्यान करे यह सूक्ष्म ध्यान है, जोकि अत्यंत दुर्लभ है और देवताओं के लिए भी दुर्लभ है। ( मेरे मत से निराकार का ध्यान करना भी सूक्ष्म ध्यान ही है)


 इस तरह ध्यान के तीनों भेदों की व्याख्या की गई है। साधक को अपने विश्वास और सामर्थ्य के अनुसार ही इनमें से किसी भी ध्यान का अभ्यास करना चाहिए। 

समाधि 

आत्मा का परमात्मा से मिलन को ही समाधि कहा गया है। " मै स्वयं ब्रह्म ही,संसारी मनुष्य नहीं हूं, मुझसे भिन्न जो प्रतीत होता है वह सब मिथ्या है ,जैसे समुद्र की तरंगे व लेहरे उसमे से उठकर उसी में चली जाती है, वैसे ही ये दृश्यमान जगत मुझसे ही उत्पन्न होता है और मुझमें ही लीन हो जाता है। इसी प्रकार जगत और माया की सत्ता भी मुझसे अलग नहीं हो सकती।" इस प्रकार जो साधक परमात्मा को आत्म रूप से प्रकाशित मानता है वह अवश्य ही परम अमृतमय परमात्मा भाव को प्राप्त हो जाता है। जब साधक को यह ज्ञान हो जाता है तो उसके लिए कुछ भी जान ना शेष नहीं रह जाता , जब साधक ध्यान करते समय यह भूल जाए कि वो ध्यान के रहा है और उसे अपना भी ध्यान ना रहे, तब समझ लेना चाहिए कि उसे समाधि सिद्ध हो गई है। और उस मोक्ष की प्राप्ति हो गई है व परमानंद की चरम अवस्था में लीन हो जाता है।
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Ashtanga yoga अपने आप में ही आती विशाल व अति जटिल विषय है कि इसके बारे में जितना लिखा जाए कम ही लगेगा, जितनी गहराई में उतारते जाएं इतना ही उथला लगेगा, जितना जाने उतना ही अनजान लगेगा। इसके कुछ कुछ अंगों के बारे में मै आगे विस्तार से बताऊंगा।

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